जज्बात
जज्बात कहूं कैसे, मेरे होंठ नहीं खुलते,
मौसम है पतझड़ो का, यहां फूल नहीं खिलते।
बेकश की जिंदगी है, अरमानों पर पहरा है,
चारागर ढूंढे नहीं,दर्द ए जिगर गहरा है,
जज्बात कहूं कैसे, मेरे होंठ नहीं खुलते,
मौसम है पतझडो का, यहां फूल नहीं खुलते।
सूरत है अंधेरे मैं, यहां दीप नहीं जलते।
दहरा मे उजाला है,महफिल में अंधेरा है,
ये करतूत है कुदरत की, कहीं गम का बसेरा है
डूबी हुई कस्तियों के, कहीं साहिल नहीं होते।
जज्बात कहूं कैसे,मेरे होठ नहीं खुलते,
मौसम है पतझड़ो का, यहां फूल नहीं खिलते।
बेताबी के बादल हैं, बरसातें हैं तड़पती,
शबनम की शक्ल जैसे , शोलों में है,बदलती,
किस्मत के बादशाह का,हम बोझ लिए चलते।
जज्बात कहूं कैसे,मेरे होंठ नहीं खुलते,
मौसम है पतझड़ों का, यहां फूल नहीं खिलते ।
कृष्णवंदना शर्मा